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भारतीय ग्राहक आन्दोलन उत्थान विधि-निषेध

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ग्राहकतीर्थ- श्री.बिंदुमाधव जोशी.
संस्थापक अध्यक्ष
अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत

        पार्श्वभूमि:ग्राहक आन्दोलन का बोलबाला दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। १९७४ में प्रथम पुणे में ग्राहकों के जन आन्दोलन का प्रारंभ हुआ। इसके पूर्व ग्राहकों का निर्देशन करने वाली एक भी संस्था नहीं थी। पुणे में १९७४ में मैंने जब ग्राहकों के जन आन्दोलन की कल्पना प्रथम लोगो के सम्मुख रखी, तब उसे किसी ने गंभीरता से नहीं लिया । उलटे कुछ लोगो ने उसका उपहास भी किया। परन्तु यह भी बताना उचित होगा की पुणे के कुछ महानुभावो में 'सोबत' के संपादक श्री ग. वा. बेहरे ,दैनिक सकाळ के संपादक श्री मुणगेकर,पु. ल. देशपांडे, मुकुंदराव किर्लोस्कर,कमल पाध्ये कुलपति श्री दाभोलकर प्रमुख रहे। इनका सक्रिय सहभाग था। पुणे में कुछ समय तक आन्दोलन का कार्य चलने के बाद न्या. छागला द्वारा ग्राहक पंचायत के नाम से इस कार्य का लौकिक उद्घाटन किया गया।
पुणे के समान मुंबई में ग्राहक पंचायत का शुभारम्भ करने का स्वरतीर्थ श्री सुधीर फडके का आग्रह था। उन्होंने पहले अपने घर पर बैठक आयोजित कियी । मैंने ग्राहक पंचायत आन्दोलन, ग्राहक संघ की कार्यप्रणाली इत्यादि की जानकारी दी । मुंबई में प्रारंभ में उसी प्रकार का अनुभव मिला। यह कार्य मुंबई वासियों को विशेष नहीं भाया, परन्तु बाद में कुछ बैठकें और मेले आयोजित हुए और ग्राहक पंचायत का कार्य मुंबई में प्रारंभ हुआ।

ग्राहक आन्दोलन के ३८ वर्षा हो चुके हैं। इन ३८ वर्षो में ग्राहक पंचायत का संगठन देश के सभी राज्यों में एक सहस्त्र स्थानों पर खड़ा है। ग्राहक संगठन का सुचारू कर्यजाल ग्राहक पंचायत के रूप मैं फैला हुआ है। इसके अतिरिक्त स्थानीय स्तर पर अनेक क छोटे छोटे ग्राहक संगठन स्थापित हैं। ग्राहकों के पक्ष में निर्णय आ रहे हैं। शासन ने इस आन्दोलन को मान्यता प्रदान की है । ग्राहक संरक्षण अधिनियम बन चुका है । न्याय मंच काम कर रहे हैं, समाचार पत्रों में स्तम्भ प्रकाशित हो रहे हैं। अनेक संस्थाओं ने ग्राहकों के परिवादों, व्यथाओ की सुनवाई करने हेतु "ग्राहक कक्ष" खोले हैं। सब मिला कर ग्राहक आन्दोलन का बोलबाला देश में बढ़ रहा है।

आन्दोलन का स्वायत्त स्वरुप: ग्राहक आन्दोलन भारत की शोषणमुक्ति का संग्राम है। भारत की अर्थव्यवस्था यदि कल्याणकारी बनानी हो तो अर्थव्यवस्था का मूलाधार जो ग्राहक है वह जागृत हो जाना चाहिए, वह प्रशिक्षित हो जाना चाहिए वह संगठित होना चाहिए। इस ग्राहक शक्ति को अर्थ व्यवहार पर, बाज़ार पर अंकुश के समान काम करना चाहिए। उद्दयम, व्यापार, बाज़ार और ग्राहक शक्ति, ये शक्तियाँ यदि एकत्र आयेंगी तो शोषण मुक्ति मिलेगी।
ग्राहक्शक्ति + बाज़ारशक्ति  + दंडशक्ति = शोषणमुक्ति, यह ग्राहक आन्दोलन का समीकरण है।

गुणवत्ता के आधार पर मान्यता: दंडशक्ति का ही अर्थ शासन है। ग्राहक आन्दोलन और शासन का आपस में सहकार्य होना चाहिए। परन्तु इस बात की सावधानी रखना बभी आवश्यक है की ग्राहक आन्दोलन शासकीय न बनने पाए। आन्दोलन के कार्यकर्ताओ को कभी कभी लगने लगता है कि उन्हें शासन कि ओर से धन, अनुदान मिले। दूसरी ओर शासकीय अधिकारी, शासक सोचते हैं कि अपनी नीति कार्यान्वित करने के लिए ग्राहक आन्दोलन जैसे एकाध संगठन, कर्यतंत्र अपने हाथ में हो। कार्यकर्ताओं और शासनकर्ताओं को ऐसा 'लगना' या 'सोचना' ग्राहक आन्दोलन के स्वायत्त स्वरुप को बड़ा अघात पहुचायेगा।

ग्राहक आन्दोलन के कार्यकर्ताओ को अपने गुणों और ग्राहक जागृति के कार्य के बल पर ग्राहक संगठन को समाज में मान्यता प्राप्त करनी चाहिए और स्वयं को भी मान्यता प्राप्त कर लेनी चाहिए। शासनकर्ताओ को भी इस आन्दोलन का नेतृत्व न कर, अपने गौण भूमिका लेकर सदा सहाय्यक समर्थक भूमिका पूरी करनी चाहिए। गत ३७ वर्षो में ग्राहक आन्दोलन को देशव्यापी बनाते समय यह नीति सफल रही है, यह विशेष रूप से हमें बताना है।

ग्राहक आन्दोलन भारत में स्वयंप्रेरणा से प्रारंभ हुआ। और तब शासन द्वारा उसे समर्थन मिला। ग्राहक संरक्षण अधिनियम १९८६ में ग्राहक पंचायत के संगठन ने प्रथम प्रस्तुत किया और तब बाद में शासन ने उसे स्वीकार किया। '२४ दिसम्बर यह भारतीय ग्राहक दिन है 'यह १९९० ग्राहक पंचायत आन्दोलन ने प्रथम घोषित किया और तत्पश्चात शासन उसमे अधिकृत रूप से सहभागी हुआ। ग्राहकों का संगठन पंजीकृत करने के लिए स्वतंत्र 'ग्राहक संगठन पंजीकरण अधिनियम १९९१' का नया विधेयक ५ सितम्बर १९९२ के दिन ग्राहक पंचायत आन्दोलन ने प्रथम लोकसभा में प्रविष्ट किया। भविष्य में शासन द्वारा यह अधिनियम बना दिया जायेगा। केंद्र शासन में ग्राहक कल्याण मंत्रालय नामक स्वतंत्र मंत्रालय हो इस दृष्टि से ग्राहक पंचायत ने उसका प्रारूप भी बनाया है। शासन उसको भी भविष्य में स्वीकार करेगा।


यह जो कुछ हो रहा है यही ग्राहक आन्दोलन कि स्वस्थ वृद्धि के लिए उचित है। २४ दिसम्बर के 'ग्राहक दिन' के कारण इस आन्दोलन के विषय में सर्वत्र उत्साह है। यह आन्दोलन शक्तिशाली बने यह सभी की इच्छा है। यह उत्साह और अनुकूलता स्वागत योग्य ही है। पर इसके साथ ही ग्राहक आन्दोलन के बन्धनों और संयमो को भी ध्यान में रखना आवश्यक है. संत नामदेवोक्त अभंग में थोडा परिवर्तन कर मै उसे कुछ इस प्रकार कहना चाहूँगा - "ज्याने ग्राहक मात्रा घ्यावी, त्याने पथ्ये सांभाळावी" (अर्थ स्पष्ट है, जिन्होने ' ग्राहक मार्ग' स्वीकारा है, उन्हे विधि निषेध को संभालना चाहिये)


राजनीति मुक्त ग्राहक आन्दोलन किसी भी सामाजिक आन्दोलन, संगठन चलते समय क्या किया जाये, क्या नहीं किया जाये इसका ध्यान यदि नहीं रखा गया तो अच्छे अच्छे समाजोपयोगी आन्दोलन और संगठन राह भटक जाते हैं और वास्तव में जिनकी समाज को नितांत आवश्यकता है, ऐसे आन्दोलन और संगठन राह भटक जाते हैं और फलस्वरूप समाज कि ही एक हानि होती है। कुछ उदहारण देता हूँ जिस से मेरी बात स्पष्ट हो जाएगी। कृषक आन्दोलन, एक गाँव एक पनघट आन्दोलन, अंधश्रद्धा निर्मूलन ग्रंथाली आन्दोलन, इस प्रकार के आन्दोलन और संगठन समाज स्वस्थ्य के लिए और प्रगति के लिए आवश्यक ही हैं। ये सारे मूलभूत आधारभूत आन्दोलन हैं। अतः उस से सम्बंधित संयम सावधानियां उनकी लक्ष्मणरेखाएं ध्यान में रखी जाने पर ही ये आन्दोलन उपयोगी सिद्ध होते हैं। अन्यथा क्या होता है, ये अनुभव समाज को हो ही रहा है। ग्राहक आन्दोलन स्वायत्त होने का अर्थ येही है कि वह किसी राजनीतिक दल का अंग बन जायेगा, उसी दिन उसका समाज में एतिहासिक कार्य समाप्त हो जायेगा। यह मई मानता हूँ। अतः ग्राहक आन्दोलन का स्वरुप 'स्वयंप्रेरित' आर्थिक परिवर्तन का प्रकल्प' ही रहना चाहिए। ग्राहक आन्दोलन- समाजगत विचार। विधि निशेधन, संयम कि चर्चा मेईन एक और बात का विचार होता है। नित्य मेरे पास जो अनेक पत्र आते है , उनमे आधे पत्रो में हमें ग्राहक पंचायत संगठन का संविधान भेजे इस प्रकार का निवेदन रहता है। मै सभी को जानकारी भेजकर कार्य प्रारंभ करने सम्बन्धी मार्गदर्शन तो करता हूं, परन्तु संविधान नहीं भेजता। अनुभव तो यह है कि लोग कार्य प्रारंभ नहीं करते वे तो केवल संविधान ही चाहते हैं। अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, कोषाध्यक्ष, सचिव , अदि का चौपड(चौसर) फैलाकर उसपर गोटियाँ जैसे बैठे रहते हैं। ध्यान रहे कि ग्राहक आन्दोलन कोई व्यक्तिगत या संस्थागत विचार नहीं है। वह तो समाजगत विचार है। समाज के समझदार व्यक्ति प्रथम स्वप्रेरणा से आन्दोलन प्रारंभ करते हैं। उसमे से संविधान जन्म लेता है। और तब उसे संस्था का रूप प्राप्त होकर यह स्वयंसेवी संस्था सच्चे अर्थ में समाज की सेवा करती है। समाज का कार्य संस्था के संविधान के कारण नहीं होता। वह तो संस्था में कार्य कर रहे कार्यकर्ताओ की सामाजशरण वृत्ति हो। अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत का इतिहास ऐसा ही है। पहले ग्राहक आन्दोलन का कार्य प्रारंभ हुआ, ततपश्चात एक कालावधि के बाद ग्राहक पंचायत का अखिल भारतीय संविधान बना।

आजकल हम लोग संस्थाओं के सम्बन्ध में संविधानवादी होते जा रहे हैं। इसका कुप्रभाव यह देखने में आता है के संस्था के उद्देश्य और सेवा कार्य तो एक ओर ही पड़े रह जाते हैं, और पर्दों, कुर्सियों के लिए चुनावों की होड़ लग जाती है। इस संविधानवादी वृत्ति के कारण अनेक संस्थाओ के अच्छे कार्य रुके पडे हैं। इस दोष से ग्राहक आन्दोलन दूर कैसे रह सकेगा, इसका ध्यान रखा जाना चाहिए। कुछ चतुर लोग ग्राहक आन्दोलन के लिए एक और संकट उत्पन्न कर रहे हैं। ग्राहक आन्दोलन को जैसे जैसे मान्यता प्राप्त होती जा रही है, वैसे तैसे उसका लाभ उठाने के लिए ये चतुर लोग कागजोपर ही ग्राहक संगठन की स्थापना करते है, और ग्राहक अधिकार समिती, कन्झुमरफोरम जैसे नाम देकर, संविधान बनाकर, उसे पंजीकृत कर अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाकर, उस आधारपर शासन से अनुदान प्राप्त करना, विविध समितियों में स्थान प्राप्त करना आदि बाते कहते है। इस पर रोक लगे इसी से 'ग्राहक संगठन पंजीकरण आधिमियम, १९९१' नाम विधेयक ग्राहक पंचायत ने लोकसभा में प्रविष्ट किया है। परंतु इसके अतिरिक्त , ग्राहक आन्दोलन यह एक समाजगत विचार है यह ध्यान में रखकर ग्राहक आन्दोलन के कार्यकर्ताओं और शासन के अधिकारीयों को इस कुप्रवृत्ति को बढ़ने नहीं देना चाहिये। ग्राहक आन्दोलन के स्वस्थ विकास हेतू सभी को सतर्क रहना चाहिये।

ग्राहक आन्दोलन - 'युनियन' नही एक लोक - यात्रा  ग्राहक आन्दोलन में पालन की जानेवाली हिताहित की बातों में,एक बात पर विचार करना पडेगा। वह है ग्राहक न्यायमंच। ग्राहक संरक्षण आधिमियम और न्यायमंच स्थापित करने के पीछे यह विचार था की ग्राहक आन्दोलन के कार्यकर्ताओं को ग्राहक संरक्षण का काम करते समय एकाध अधिनियम का आधार और स्वतंत्र न्यायमंच जैसी समस्या-निवारक एक अधिकृत व्यवस्था हो। अधिनियम और न्यायमंच बन जाने से यह तो साध्य हो गया है परन्तु उसमे से एक नयी समस्या उत्पन्न हो गयी है।

समस्या यह है कि इस आन्दोलन के कार्यकर्ता ऐसा विचार करने लगे है कि 'केसेस' करना यही उनका कार्य है। ग्राहकों का प्रबोधन, उनकी संगठित शक्ति खडी करना इन मौलिक कार्यो पर उनका ध्यान कम होकर, धीरे धीरे ग्राहक संगठन के कार्यालय लो किसी अभिवक्ता (वकील) के कक्ष का स्वरुप आता जा रहा है और कार्यकर्ता अब बिना काला कोट पहने अभिवक्ता बनते जा रहे है। यह एक बहुत बड़ा संकट (भय) ग्राहक आन्दोलन में से ग्राहक व्यवसायी जन्म लेंगे और ग्राहक आन्दोलन ट्रेड युनियन बन जायेगा। ग्राहक संगठन ये कोई युनियन नहीं है। राष्ट्रोत्थान हेतु शोशणमुक्त समाज के निर्माण के लिये आर्थिक क्षेत्र में चलायी गयी एक लोकयात्रा है। विविध घटकों के बीच समन्वय स्थापित करने की आन्दोलन नीति है। व्यापारी, उत्पादक, कर्मचारी, कृषक, विक्रेता, आदि के बीच संवाद स्थापित होकर समस्यओंका निराकरण होना चाहिये। ग्राहक पंचायत का किसी से शत्रुत्व नहीं है। परन्तु अनुचित व्यापार और प्रथा के विरुद्ध विरोध अवश्य है। आपसी संवाद से ग्राहक द्वारा ग्राहालो की समस्यओंका निराकरण करना यह उसका मार्ग है। इस मार्ग में आवश्यकता पड़ने पर ही ग्राहक आन्दोलन के कार्यकर्ताओंको विधिनियम और न्यायमंच का आधार लेना चाहिये। उठते बैठते न्यायालय की शरण यह किसी जन आन्दोलन का मार्ग नहीं हो सकता। आपने ग्राहक न्यायमंच में कितने अभियोग प्रविष्ट किये? इस प्रश्न से आप ग्राहक संगठन की सफलता को माप नहीं सकते। सबके विपरीत आपने आपस में संवाद स्थापितकर कितने ग्राहकों की समस्याओं का निराकरण किया? यह प्रश्न ग्राहक संगठन की सफलता का परिचय है।

उपभोक्तावाद और ग्राहकवाद ग्राहक आन्दोलन और उसका दर्शन अमेरिका जैसे पाश्चात्य देश से भारत को लेना पडा है या लेना पड़ेगा इस अज्ञान में से एक पराजित विचार इस आन्दोलन के साथ जोड़ा जाता है। यह भी उचित नहीं है। ‘ग्राहक’ विचार भारत को नया नहीं है। दो सहस्त्रती सौ वर्ष पूर्व आचार्य शुक्राचार्य, आचार्य चाणक्य जैसे राज्यशास्त्र उत्तम ढंग से जाननेवाले श्रेष्ठ विचारको ने ग्राहकों ले कर्तव्य और अधिकार व्यापार के अधिनियम, नापतील, मिलावट जैसे विषय, वस्तुओ के उत्पादन मूल्य निर्धारित करने दे निकष सम्बन्धी सूत्र, जो आज भी मार्गदर्शक सिद्ध होंगे, बताये है। अमेरिकन कन्झुमेरिझम केवल भोगवाद का प्रतिपादन करता है। उसमे से उपभोग-संस्कृति, वस्तु-संस्कृति (कमोडिटी कल्चर) जन्म ले रही है। यह भोगवादी विचार प्रणाली पृथ्वी के गर्भ में स्थित सारे खनिज पदार्थ तो समाप्त कर देगी ही, परन्तु साथ में मानव सभ्यता को भी ग्रसित करेगी। मानव हा भावनाविश्व नष्ट होगा। इसलिये भारत ग्राहक आन्दोलन को 'कन्झुमेरिझम' नहीं उपभोग पर संयम यह भारतीय विचार दर्शन के मानव कल्याणकारी ग्राहकवाद को स्वीकार करना चाहिए। केवल उपभोग लेता है इसलिये ग्राहक यह संकुचित विचार है। मन, बुद्धि और आत्मा के सहारे जो ग्रहण करता है वह ग्राहक यह भारतीय विचारों की विशेषता है।

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महात्मा गांधीचे स्वप्न ग्राहक पंचायत पूर्ण करील
हे काम कोणत्याही राजकीय पक्षाचे नाही.


- मा.सादिक अली
  माजी राज्यपाल
   महाराष्ट्र